Fursat ke Pal / Kuch Panne

स्वागतम

2 साल पहले, आज ही के दिन, आये भूकम्प के बाद लिखा था ये पन्ना…

सुबह साढ़े पांच बजे नींद खुल गई। कानों में पंछियों की चहचहाट रस घोल रही थी। पर्दा खींच कर एक तरफ हटाया तो ठंडी सी हवा भी तन को छूने लगी। उचक कर दरवाजे के बिल्कुल करीब आ खड़ी हुई। आसमान में लालगी छाई थी। शायद पूरब में सूरज जाग चुका था। नए दिन की शुरुआत, उसी खूबसूरती, उसी नयेपन के साथ, जैसी सालों से होती आई है। कहीं कोई अटकाव, कोई अवसाद नहीं। कल के झटके भरे दिन का कोई निशान भी बाकी नहीं।

पर सचमुच ऐसा है क्या!

या केवल आंखों का धोखा है। जिनके घर टूटे, दीवारें गिरीं, अपने छूट गए, उनके लिए इस सुबह के भला क्या मायने। वो तो कल के उन मनहूस क्षणों में ही अटके रह गए होंगें। महीनों लग जाएं शायद उबरने में या फिर एक पूरी ज़िंदगी।

पर समय कभी किसी के लिए रूकता नहीं। त्रासदी की विशेषता है कि जितनी तेज़ी से आती है, उतनी ही तत्परता से इंसान उसे विस्मृत करने में जुट जाता है ताकि जीवन वापिस पटरी पर आ सके।

आज की सुबह भी कुछ ऐसा ही संदेश लेकर आई है। भूतकाल की यादों को सहेज, भविष्य के सपने सजा, वर्तमान में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हुई। आज खुद पर लगाई कडि़यां खोल देना चाहती हूँ, उस बंकर से बाहर आने के लिए, जो बड़े जतन से खोदा था। आखिर गोलीबारी से डरकर अंधेरी कोठरी में जीवन भर बिना आक्सीजन तड़पती मछली सा जीना भी समझदारी तो नहीं। खासकर तब जब पता है कि दरिया में आते तूफान और धरातल के भूडोल से बचना नितांत असंभव ही है। बस जब तक सांस, तब तक आस!

शायद इसीलिए आज़ाद पंछियों की तरह चीं चीं करते, पंख फडफडाते, सूरज की दुपहरी गर्मी से अनजान हो, सुबह की सुरमई ठंडक को गले लगाना ही प्रकृति का नियम भी है और विधान भी। शोकाकुल कल की स्मृतियों को उज्जवल कल के स्वपनों से जोड़ती इस नयी सुबह का स्वागतम।
Anupama
#kuchpanne

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