Kuch Panne

सड़न

उत्सव, खुशी, जीवन, उमंग… सकारात्मक ऊर्जा बहती है इनमें… मन भावविभोर हो, डोलता है… तन में स्फूर्ति और सोंदर्य स्वयमेव प्रकट हो जाते हैं… जैसे कोई सोता फूट पड़ा हो… चट्टानों को भेेदता, ऊंचाइयों को रोंदता.. धरातल से मिलन को आतुर प्रेयस सा अधीर… आह! पल पल मधुर गान, सुमन सौरभ आभायमान…

परंतु… जितना आकर्षक उतना क्षणभंगुर…

आने के साथ ही जाने की प्रक्रिया गतिमान… फूलों के खिलने में ही उनका झड़ना निहित.. बादलों के बनने में ही बरस जाना सम्मिलित.. रंगों के दिख जाने में, कहीं गहरे उनमें से कितने का खो जाना प्राकृतिक… आह! निर्दयता लगती है… उच्च कोटि का नाटक… सुख के वेश में दुख का आक्रमण… और फिर भी उसमें लोलुप होने का मूर्ख प्रलोभन, ये मन अस्वीकार नहीं कर पाता…

तितली को देखकर खुश हो जाना एक बात, पर उस तितली की मृत देह को मिट्टी से अलग देख भी न पाना, क्या संवेदना का अभाव नहीं… पंछियों के कलरव में खोते खोते, उनमें से किसी को भी प्राकृतिक मृत्यु का ग्रास बने न देख पाना, क्या अधूरा प्रकृति प्रेम नहीं…

झिंझोड़ती हूं, और मौन हो जाती हूं… अस्वीकार्य जो है मन को बिदकना, ठिठकना, मूढ़ हो जाना… ऊपर ऊपर से छू लेना सरल है, टेंपररी और कंफर्टेबल… अंदर तो व्ही सड़न है…
Anupama

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