अखबारों में आए दिन हम राजनैतिक गठबन्धनों की खबरें पढ़ते रहते हैं। किस तरह जोड़ तोड़ से सरकारें बनाई जाती हैं और किस तरह सांठ गांठ करके तख्ते पलट दिए जाते हैं ये बात शायद किसी भी जागरूक नागरिक से छुपी नहीं है। यहाँ तक कि अब तो गठबंधन सरकार धीरे धीरे हमारे लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग बनती जा रही है। आज चलता ही वही है जो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को अपनी तरफ लुभा पाता है।
परंतु मेरे इस आलेख का उद्देश्य राजनीति के इन दांव पेंचों पर टिप्पणी करना नहीं वरन् समाज में हर स्तर पर फैल चुके राजनैतिक समीकरणों और अवांछित तुष्टीकरण की तरफ आपका ध्यान आकर्षित करना है जिसके चलते इंसानी रिश्तों की रूपरेखा भी हमारे लोकतंत्र की भांति ही कुछ बदलती सी नज़र आ रही है।
मानव सामाजिक प्राणी है। अपने आस पास के माहौल से प्रभावित होता और चाहे अनचाहे अपनी अमिट छाप समाज पर छोड़ता है। और इसकी एक मज़बूत बुनियाद होते हैं रिश्ते, जो जन्म लेते ही हमें एक अटूट बंधन में बांध देते हैं। माता, पिता, मित्र,नातेदारों के रूप में। शायद मानव की सबसे बुनियादी ज़रूरतों में से एक है उसे अपने इसी समाज में मिली स्वीकृति एवं सम्मान। रोटी, कपड़ा और मकान में तो शायद कमोबेश की गुंजाइश है भी। इंसान जोड़तोड़ कर अपनी इन ज़रूरतों की पूर्ति कर ही लेता है। परंतु उसके बाद बस एक ही आस होती है कि उसे समाज व परिवार में यथोचित सम्मान मिल पाए।
परंतु आज के बदलते परिवेश में इस बेसिक ज़रूरत की परिभाषा बहुत तेज़ी से बदलती जा रही है। पैसा और रूतबा सर्वोपरि हो गए हैं और आपसी रिश्ते महज़ एक औपचारिकता। आप खुद ही अपने आस पास नज़र दौड़ा कर देखिये कि आखिर कितने संयुक्त परिवार बच पाए हैं आधुनिकता की इस अंधाधुंध दौड़ में।
इंटरनेट के इस दौर में जितनी तेज़ी से हमारी जानकारी बढ़ रही है और दुनिया सिमट रही है शायद उससे दुगुनी रफ्तार से हमारे आपसी फासले बढ़ रहे हैं। जहां कुछ साल पहले वृद्धाश्रम केवल बेहद मज़बूरी में जीवन यापन करने का एक ज़रिया मात्र था वहीं यह आज का पॉपुलर ट्रेण्ड बनता जा रहा है।अपनी जीवन शैली में किसी तरह का अवरोध उत्पन्न न हो, इसका सुनिश्चित उपाय। आखिरकार बिजली की रफ्तार से भागती इस ज़िंदगी में मां बाप से लगाव तो कम हो ही गया है और एक बार किसी तरह सम्पत्ति अपने कब्ज़े में कर लेने के बाद तो उनकी ज़रूरत शायद रह ही नहीं जाती। वृद्ध दम्पत्ति बोझ लगने लगते हैं, घर में रखे पुराने सामान की तरह जिनसे छुटकारा पा लेने में हमें कोई खास दुख होता भी नहीं।
हालांकि हमारे देश में युगों से रिश्तों को यथोचित सम्मान देने की परंपरा रही है। कोई भी सुख दुख बिना बुजुर्गों की सहमति के नहीं होता। पर धीरे धीरे उदासीनता प्रवेश कर रही है इन वर्षों पुराने रीति रिवाजों में। मानती हूँ कि इनमें से कुछ दकियानूसी रूढ़िवादी विचारों में परिवर्तन होना अनिवार्य था। दहेज पर रोक और विधवा पुनर्विवाह का समर्थन इनमें सर्वोपरि हैं। शिक्षा और जागरूकता आवश्यक थी इन बुराइयों से निजात पाने के लिये और कुछ हद तक एकाकी स्वतंत्र परिवार, इस ध्येय को प्राप्त करने का एक अच्छा उपाय जिससे सबको अपना और अपने निकटतम परिवार का भला बुरा समझने की छूट मिल सके।
परंतु स्वतंत्रता अपने साथ ज़िम्मेदारी लेकर आती है। उच्छृंखलता किसी भी मायने में समाज और मानव मात्र के लिए लाभकारी नहीं होती। एक बार स्वयं अपने हृदय को टटोलिए और सोचिए कि क्या सचमुच अपनी परंपराओं को तिलांजलि देने के साथ हमने इन कुरीतियों से मुक्ति पा ली है या फिर सिर्फ चोगे बदले हैं इन बुराईयों ने।पहले जो रिवाज़ था, वही अब स्टेटस सिंबल बन गया, बाकि कुछ नहीं बदला। हां, रिश्ते खोखले ज़रूर हो गए हैं। किसी भी सम्बन्ध विच्छेद में अब समाज का डर नहीं है। शायद इसलिए बहुत आसानी से माता पिता किसी आश्रम में पहुँचा दिए जाते हैं और छोटी सी बात पर पति पत्नी अदालत का दरवाज़ा खटखटाते नज़र आते हैं। स्वयं का तुष्टीकरण ही सर्वोपरि है अब।
परिवार एक मज़बूत डोर नहीं अपितु राजनीति का अखाड़ा बनता जा रहा है। भाई बहन विरोधी पार्टी के नेता और माता पिता मजबूर राष्ट्र। नतीजा, हमारा समाज धीरे धीरे टुकड़ों में बंटता जा रहा है। हर बिखरे टुकड़े की अपनी ही कहानी और अपना ही स्वार्थ।
ये भिन्नताएँ केवल परिपक्व व्यस्कों तक ही सीमित हों, ऐसा भी नहीं। ये मीठा विष तो फैल चुका है नसों में।
बालपन से ही शुरू होने लगती है रिश्तों की राजनीति। दिखावा और झूठ भर दिया जाता है जाने अनजाने बालकों के कोमल अस्तित्व में। उन्हें क्लास कोन्श्स बनने की हिदायत दी जाती है। शिक्षा के मंदिरों में भी अमीर गरीब, बड़े छोटे का फर्क घोटकर पिला दिया जाता है और शुरुआत हो जाती है कुंठित बचपन की, जिसमें मासूमियत कम, ऊपर नीचे का फर्क ज़्यादा होता है। चाचा ताऊ के बच्चों में भी आपसी प्रतिस्पर्धा अब बालपन की भोली दहलीज को लांघ कर राजनीति के मैदान में प्रवेश करने लगी है।
इसमें कतई शक नहीं कि बच्चों के पालन पोषण में आज के पढ़े लिखे माता पिता बहुत जागरूक हो चुके हैं।अपने लाडले की हर इच्छा पूरी करने को तत्पर रहते हैं और ऊंची से ऊंची शिक्षा दिलाने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं। दौलत से हासिल होने वाली हर चीज़ उन पर लुटा देते हैं। यहां तक कि बच्चों की रूचि का खास ख्याल भी रखा जाता है। चाहे नृत्य हो या गान प्रतियोगिता, खेल कूद का मैदान हो या कला क्षेत्र की अनथक यात्रा, हर कदम पर वे बच्चों के साथ नज़र आते हैं, उन्हें प्रोत्साहित
करते, उनकी हिम्मत बढ़ाते। आपने भी नोटिस तो किया ही होगा कि किस तरह रियलिटी शोज़ की बाढ़ सी आ गई है टीवी पर। हर तरह के गानों पर थिरकते और अपनी मासूम अदाओं से मन मोहते ये कलाकार तो अक्सर नज़र आ ही जाते हैं हमें और आपको।
पर इन्हें इतने परिपक्व तरीके से मीडिया में उभरते देख मेरे मन में कई प्रश्न कौंध जाते हैं। क्या सचमुच इन नन्हें मुन्नों के साथ भलाई ही की जा रही है या फिर उनकी योग्यता को प्रोत्साहित करने के प्रलोभन में उन्हें यथार्थ से दूर किया जा रहा है। छोटी सी उम्र में ही एक खास तौर के हावभाव में ढाल दिया जाता है। सम्मान और एक अलग तरह की ट्रीटमेंट की अपेक्षा उभरने लगती है इन बच्चों के मन में। और कभी कभी तो इतना महत्वाकांक्षी हो जाते हैं कि हल्की सी असफलता ही अवसाद को जन्म दे बैठती है। कारण ज़मीनी हकीकत से जुदा होना।
जहां एक ओर हम बाल मज़दूरी के खिलाफ नित नए भाषण कहते सुनते हैं, वहीं दूसरी ओर इन बाल कलाकारों की तारीफ करते नहीं अघाते। शायद धन और ख्याति हमारी आंखों पर अपना रंगीन चश्मा चढ़ा बैठती है और हम बाल मन को उत्साहित करने की आड़ में अपनी अधूरी इच्छाओं की पूर्ति करने में पूरे ज़ोर शोर से जुट जाते हैं। और इसमें भी राजनीति की ही तरह हर दांव को पूर्ण मान्यता प्राप्त है। कृत्रिम तरीकों से सुंदरता उभारना हो या अपनी समझ से परे के फिल्मी गीतों पर अदाएँ दिखाना, आधुनिकता के नाम पर हम सबको बबूल का कांटा मीठी चाशनी में डुबो कर दिया जा रहा है और हम उसे exotic dish समझ इत्मिनान से चबा रहे हैं।
शायद कुछ पाठकों को मेरा ये लेख निराशावादी लगे परंतु बहुत हद तक हमारे तेज़ी से प्रगतिशील होते समाज का यथार्थ है ये और इस लेख में विवाह के बंधन को तो बस छुआ भर है मैंने क्योंकि जब खून के रिश्तों में ही औपचारिकता और उदासीनता घर कर गई हो तो मात्र अग्नि के सात फेरे लगा जन्म जन्मांतर के अटूट बंधन की आशा रखना तो मूर्खता ही होगी। ज़ाहिर सी बात है कि जब इंसान खुद के साथ दौड़ लगाने में व्यस्त हो तो किसी दूसरे की सुख समृद्धि की ज़िम्मेदारी तो नितांत बोझ ही लगती है। समय का अभाव कहिए या सब्र की कमी, हम में से कोई भी आज किसी और के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश नहीं करता। शायद यही एक कारण है कि जेठानी-देवरानी और सास-बहू की बात तो छोड़िए, आजकल भाई-बहन और पति-पत्नी में भी मुश्किल से ही निभती है। हम सब तो मानो मशीनी रोबोट हो गए हैं, बिना किसी भावनात्मक लगाव के अपने ही प्रियजनों पर मार्मिक प्रहार करते व सुविधा अनुसार उनका उपयोग व उपभोग करते!
परस्पर बढ़ते अविश्वास, आसमान छूती महत्वकांक्षाओं और रिश्तों के बदलते रंग रूप को देख मुझे तो भविष्य अधर में लटका ही नज़र आता है। आपका क्या ख्याल है रिश्तों में तेज़ी से फैलती इस राजनीति के बारे में। विचार कीजिए बिना किसी से प्रभावित हुए। शायद ज़मीनी हकीकत साफ सपाट चमकने लगे।
Anupama
Published in Bhojpuri Panchayat
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