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महामारी या मारामारी

सोचा था, जब तक तन और मन दुरुस्त न हो जाए, लिखना avoid करूंगी। पर पिछले कुछ दिन इतना अवसाद, निराशा और चिंता में गुज़रे हैं कि बिना लिखे, मेरा बीपी कंट्रोल होगा नहीं, आखिर इतनी कड़वाहट और गुस्सा लिए, कोई जिए भी तो कैसे?

बीमारी को महामारी और महामारी को मारामारी में बदल देना, हमें खूब आता है। वायरस तो दरअसल इस समाज की नस नस में वैसे ही बसा है, अब तो बस उभर कर सामने आया है। एक बीमारी ने सबकी मानसिक अवस्था ही बदल डाली। मॉर्निंग इवनिंग के इरिटेटिंग मैसेजेस की जगह नुस्खे, टोटके, काढ़े, गोबर, दवाओं के प्रिस्क्रिप्शन ने ले ली! ऑक्सीजन भरने भरवाने से लेकर, दवा bed टेस्ट करवाने तक के मेसेज यहां से वहां तैरने लगे! मैंने भी इसमें कंट्रीब्यूट किया था, क्योंकि मदद की दिखावा करना हम सबको बहुत भाता है! इसमें उनकी बात नहीं कर रही जो सचमुच काम में जुटे रहे, नंबर्स वेरिफाई करके, पूरी एड़ी चोटी के बल से दूसरों को, अनजानों को मदद पहुंचाते रहे, वे फरिश्ते हैं, उनकी वजह से जो जानें बच पाई, उनका अहसान तो मानवता कभी भूल ही नहीं सकती… मैं तो बात कर रही हूं, उस समाज की, जो हम जैसों से बना है, बनाया गया है। जहां केमिस्ट से पूछ कर पेट, सरदर्द, बुखार की गोलियां गटकते हम, जाने कब रातों रात korona विशेषज्ञों में तब्दील हो गए! कोई अंदाज़ा भी है कि इन उलजूलूल इलाजों से कितनों को नुकसान पहुंचा है? पहले मैं हर बात के लिए नेता और मीडिया को जिम्मेदार ठहरा देती थी, आसान था। लगता फर्ज है उनका, सही निर्णय लेना, पॉलिसी बनाना, इंफॉर्मेशन एकत्र करना और फिर जांच पड़ताल करके, confirmed sources की बात जनता तक पहुंचाना।

पर न, मैं तो दिवास्वप्न में खोई थी। ऐसा कुछ तो तब हो, जब मेजोरिटी यह expect करे! हमने तो इतना खूबसूरत समाज गढ़ लिया है जो अपनी ही धुन बजाता, मोबाइल में लगातार कोट्स और विडियोज के जरिए सकारात्मकता में जीने का नाटक कर रहा है। आसान है न, आंखें बन्द कर के, सामने बैठी बिल्ली से बचाने के बदले, उसके वहां होने से ही इंकार कर देना!

Be strong, be positive का परचम लहराते, अपने बिलों में दुबके हुए, इन्फेक्शन और इंजेक्शन के बीच दौड़ लगाना! मुझे बहुत से मिले पिछले दिनों। केमिस्ट, टेक्नीशियन से लेकर परिचितों तक, प्रोफेशनल्स से लेकर so called वेल विशर्स तक! बस शुक्र कि कुछ फरिश्ते साथ रहे!

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