Kuch Panne

परिवर्तन

ये जो हवाएं चलती हैं फरवरी में, बहुत भाती हैं इस मन को। और क्यों न भाएं, बसंत ऋतुराज यूँ ही तो नहीं। प्रकृति में परिवर्तन, ऊर्जा संचार का सबसे मौलिक रूप ठहरा और मौलिकता प्रभावित करती है मुझे। गर्वीली सरदी अपना कसैलापन लिए विदा होने को है और पतझड़ पुरातन को लील, नवजीवन संचार करने में निहित। उत्सव सा पावन गतिशील वातावरण है। और मैं इस बगिया में किसी अदृश्य चुंबक के आकर्षण में सम्मोहित, खिंची चली आई हूँ।

बाग के बीचोंबीच फव्वारा है, लोहे की सलाखों से घिरा और उसके चारों ओर सीमेंट की सीढि़यां। मैं वहीं पांव समेटे बैठ जाती हूँ। बादलों की ओट से छनकर आती धूप लुक्काछिपी कर रही है। और मैं हाथों की ओट से अपने आसपास का अवलोकन करने की असफल चेष्टा कर रही हूँ।

गिलहरियों के झुंड आखेट पर निकले हैं। पीपल के नीचे रोटी के बिखरे टुकड़े चुन-चुन कर पंजों में दबा भागते हैं और इक-दूजे की ओर पीठ किए बिना आवाज़ किए हड़बडी में खाते हैं। अगले ही पल फिर एकजुट हो पेड की ओर दौड़ पडते हैं। मैं होंठ दबा हंसती हूँ। तभी एक सोनचिरैया भागदौड करती नजर आती है। वो बगिया के उस कोने में जो मोरपंख का नवजात वृक्ष है, उसके भीतर-बाहर दसियों बार आ जा रही है। जाने टहनियों के कोमल हिस्से चुन रही है या मुलायम हरियल पत्तों से नीड सजा रही है। पास ही हैं मधुर गुंजन करते भंवरे जो पुष्प-आलिंगन को उद्यत प्रतीत होते हैं।

चारों ओर आकर्षण अपना रूप बदले पांव पसारे बह रहा है। मुझे महसूस होता है कि ये पहली बार नहीं। इन सबसे मेरा परिचय बहुत पुराना है। शायद किसी फरवरी में इन्हीं से मिलने तडप उठी थी। परलोक छोड़ इहलोक में बस गई थी। पर जाने क्यों स्मृति धुंधली सी है। मानो युगों बीत गए और मेरी इनसे पहचान धूमिल।

अकस्मात सीढी पर टेढी मेढी सी रेखाएं दिखती हैं। पहले तो नहीं थीं। ध्यान केंद्रित करती हूँ। कलाकृति आकार बदलने लगती है। सफेद संगमरमर को घिस-घिस कर फूल उकेर दिए हैं किसी अनाम कलाकार ने। शायद अपनी प्रेयसी का नाम भी इंगित किया है। पर सही से पढने में नहीं आता। क्या भूल चुकी हूँ या मायाजाल है। केवल दिख रहा है, समझ में नहीं आ रहा। या कोई तीव्र आकर्षण है, जो अब मुझे वापिस बुला रहा है। हस्त तूलिका से मानस पटल पर रेखाचित्र अंकित करती हूँ। कपोल कल्पित भावनाओं के बहने का समय आ चुका। मैं चुपचाप तिनके की चोट से बुलबुले को भेदती हूँ। स्वप्न छिन्न-भिन्न हो अदृश्य हो जाता है और मैं फरवरी की हवाओं संग अब भी यहीं। हाँ, आकाश अब भी अनंत है और,असीम संभावनाओं का सूर्य पूर्वतया विद्यमान! परिवर्तन पूर्ण नहीं!
Anupama

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