कहानियों का जादू सर चढ़कर कैसे बोलता है, जानना हो तो निर्मल वर्मा की “परिंदे” से बेहतर कुछ नहीं… मैं तो चीड़ के पत्तों की चरमराहट और बिंदी से जलते सिगार की आँच में बर्फीली हवाओं सी मिस लतिका और बेफिक्र डॉक्टर मुकर्जी के सूखे ठहाकों में ऐसी खोयी कि घंटा भर कब बीता, मालूम भी न चला। इस तरह गिलहरियों सा गिटपिटाता भी कोई लिखता है क्या!
न कहते हुए भी बहुत कुछ कहते हैं और उस पर कमाल यह कि कहीं कहानी थमती ही नहीं। किसी पहाड़ी सड़क पर भागती बस की तरह एक से दूसरे मोड़ की तरफ द्रुत गति से पाठक को साथ लिए, हवा सी बहती है।
काफ़ी पसंद आई। कहानी में लोच भी है, कसक भी और मज़बूत पकड़ भी। निर्मल वर्मा, एक पल को भी पाठक के मन को भटकने नहीं देते। बल्कि, अंत आते आते तो मुझे ज़रूरत ही नहीं लगी कि इस कहानी का कोई अंत भी हो। और जब हुआ तो लगा कि हां, इस मोड़ पर भी छोड़ देना, ठीक ही, ज़िंदगी की तरह होती हैं कहानियां, कोई भी पल अंतिम हो सकता है और जब तक सांस चल रही है, अंत होना ही नहीं… अनुपमा सरकार
Recent Comments