किताबों में पढ़ती थी कि भारत को सपेरों का देश कहा जाता था। हैरानी होती कि क्यों भला, लगता कि खिल्ली उड़ाई जाती रही हमारी, नीचा दिखाने की साज़िश, शायद कहने वालों की मंशा थी भी यही।
पर सवाल उठता है कि उन्हें यह कहने का हौंसला हुआ क्यूंकर? कुछ कुछ समझ में आने लगा है, कहीं न कहीं कड़वी सच्चाई है हमारे सामाजिक ढांचे की कि यहां के सपेरे मशहूर हुए हैं। क्योंकि दरअसल यह देश तमाशबीनों का देश है! यहां कुछ भी अलग सोचना होना बहुत बड़ी गलती है, दांत तोड़ देने, फन कुचल देने की परंपरा पुरानी है। बुद्धि का इस्तेमाल करने वालों का बहिष्कार होता ही आया है, धीरे धीरे फिर वही युग लौट रहा है।
लेटेस्ट है पिछले साल के कोविड वॉरियर्स को ही इस बार के कहर के लिए जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करना… एलोपैथी को कोसने वाले भूल जाते हैं कि जब सांस न आए तो इसी पद्धति से बच सकते हैं, ऑक्सीजन सिलेंडर को नथुनों में होने की बात कहते बाबा रामदेव मुझे तो क्रूरता की पराकाष्ठा दिखते हैं, जाने किस्से कह कैसे पाते हैं!
पिछले डेढ़ साल में lockdown के चलते बहुत लोग बर्बाद हुए पर कुछ लोग हैं, जिन्हें इस बीमारी और lockdown ने ही नहीं, उनकी ड्यूटी ने भी कुर्बान किया है। इन बीते कुछ महीनों में अस्पताल चौबीस घंटे हद पार हो जाने तक काम में जुटे हैं। कितने ही डॉक्टर्स को वजन खोते, परछाई बनते देख चुकी हूं… जिन नर्सेस के साथ आती जाती थी, अब उन्हें पहचान भी नहीं पाती हूं… आप कभी कभी बाहर निकलते हैं न, डर डर कर! ये रोज़ जाते हैं, ग्लव्स, mask, headgear, PPE kit सब पहनकर… और फिर भी Covid होना सामान्य बात, इतनी साधारण कि महज दो हफ्ते में वापिस ड्यूटी पर रिपोर्ट भी करना है! इंसान ही हैं न या कुछ और हैं? पहले डॉक्टर बताते थे आप फिट हैं कि नहीं, अब सब कुछ पहले ही डिसाइड होने लगा? आप बस किसी और को इनफेक्ट न कीजिए, आपकी बॉडी कितनी टूटी, उस से कहां मतलब? अजब गजब हो चुकी दुनिया अब! हां, मोबाइल स्क्रीन पर अब भी अच्छी लगती है, किसी के पक्ष और किसी के विपक्ष को चुनौती दे सकते हैं, बस जिम्मेदारी नहीं!
हद तो यह कि इसमें कामयाबी मिलना आसान भी बहुत क्योंकि काला कोट सफेद कोट से दूर रहने की सलाह, तो हमें घुट्टी में पिलाई जाती रही है। जोक्स बनते हैं वकील, डॉक्टर, पुलिस के खिलाफ़! इनसे दूर रहने में ही भलाई, यह सीख भी हमने सीखी है। शायद लक्ष्य तो यह इंगित करना था कि लड़ाई, झगड़े, मुकदमे बीमारी से दूर रहो। पर हमने उसे सिंपलिस्टिक करते हुए इन प्रोफेशनस को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। हालांकि बनना बहुत लोग चाहते हैं, और जो नहीं बन पाते या सोच पाते, अंगूर खट्टे हैं, को चरितार्थ करते हुए, लतीफों में ज़िंदगी गुज़ार देते हैं।
रही बात, mediocrity की, तो वह अब समाज के हर अंग में घुलने लगी है, उसके लिए किसी एक प्रोफेशन को कोसना बेकार है। पूरा हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर ठीक करवाने पर ज़ोर दीजिए। आवाज़ उठानी हो तो किसी एक साइंस के अच्छे और दूसरे के बुरे होने की नहीं, बल्कि सुविधाओं को बढ़ाने और हेल्थ प्रोफेशनल्स को बेहतर ट्रेनिंग देने की कीजिए। जाने कितना कुछ देख सुन रही हूं, रिएक्ट नहीं कर पा रही! क्यों बने रहना है हमें तमाशबीनों और सपरों का देश, अब भी न चेते तो फिर से वहीं पहुंचेंगे बल्कि उस से भी पीछे, गुफाओं में! अनुपमा सरकार
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