जूतों की दुकान खुली पड़ी थी और जीजा, चाचा, फूफा अपनी पसंद और नाप के अनुसार चुन रहे थे। मुफ़्त का माल ही सही, क्वालिटी चैक कर लेने में जाता ही क्या है।
जब से गोपाल ने ये दुकान खोली थी, रिश्तेदारों की पांचों ऊंगलियाँ घी में थीं। भोला-भाला आदमी, दो बेटियों का बोझ और अदनी सी नौकरी, खर्चे पूरे पड़ते ही न थे। बीबी ने ताने मारे तो उसने अनमने ढंग से जूतों का धंधा शुरू कर दिया।
पर व्यापार करना बच्चों का खेल नहीं और वो भी कॉलोनी के बीचोंबीच। औने-पौने दामों पर पड़ोसी सामान ले जाते और रिश्तेदार तो बस पैसे देने का वादा भर ही करते। साल भर में कर्ज़ का बोझ चढ़ा ही था, उतरा नहीं।
पर आज तो हद हो गई। कल रात गोपाल को हार्ट अटैक आया था। सरकारी अस्पताल में भर्ती था वो। बीबी-बच्चों का रो-रो कर बुरा हाल था। बात की बात में रिश्तेदार जमा हो गए थे। घर या अस्पताल में नहीं, दुकान में, माल तो वहीं रखा था न!
Anupama
(कथाक्रम के इस अंक में मेरी दो लघुकथाएँ)
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