मन जब बहुत विचलित हो जाता है तो दूर तक देखने का प्रयास करती हूँ… इतनी दूर जहां तारों का जमघट, कंक्रीट के जंगल खत्म हो जाएं.. नज़र आएं तो केवल पेड़ों की फुगनियाँ… बित्ते भर की दूरी पर टहनियाँ टकराकर, मानो एक दूजे को आलिंगन में भरती हों… रूई से बादलों की उड़ती टोलियां, रंग और आकार बदलती, जाने कौन दिशा में, किसके न्योते पर सरपट भागतीं…
प्रकृति अक्सर उत्सव मनाती लगती है, पर आज ऐसा कुछ भी महसूस नहीं पाती…
पकी निबोलियाँ दिख रहीं हैं… और वहां कुछ दूर, जाने बेरियां हैं या शहतूत, पेड़ उनसे लदे फदे खड़े हैं… इक्का दुक्का पंछी चहचहा भी रहे हैं… पर आज मेरा मन उनकी बोली सुनने में रमता नहीं…
कहीं गहरी सोच में डूब चुकी हूँ… सखी ने कहा भी कि तू बदल गयी लगती है… आंखों की चमक नदारद है, माथे पर शिकन की गहरी रेखाएं… आखिर क्या सोच रही है…
मैं अवाक सी उसका चेहरा देखती हूँ, झिझक कर कोई जवाब देने की कोशिश करती हूँ… पर कुछ सूझता नहीं…
कहीं कुछ चुभ गया है, कोई घाव है, पर मुझे दिखता नहीं.. मलहम के लिए तड़पती हूँ पर लगा नहीं सकती… कितनी अजीब बेचैनी, कैसी दबी सी ज़िन्दगी, हर तरफ से कितने डर, न जाने कितने बिखरे सपने, कितनी आशाओं निराशाओं की कतरनें… बटोरती हूँ और फिर फिर हवा में उड़ा देती हूँ…
शायद मेरा कुछ भी नहीं… ये प्रकृति भी नहीं… फिर भी ज़बरदस्ती इसे अपना बनाने की ज़िद लिए बैठी हूँ…. दूर तक घूरती हूँ, वो ठहरे बादल, वो उमसती हवा, वो बेजान पत्ते, वो बेरुखी पत्तियां… धुआं, धुआं, सब धुआं…. आखों के आगे अंधेरा छा रहा है… मैं झट पार्क की रेलिंग पकड़ खड़ी हो जाती हूँ… जाने धरती डोल रही या मैं ही डांवाडोल हो चुकी…
Anupama
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