कभी कभी विचारों का रेला यूं उमड़ता है कि बिन शब्दों में ढले, आपको चैन नहीं आता… एक दिन मेट्रो में कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ था.. ऐसा लगा मानो, ज़िन्दगी की भागदौड़ में इंसान रोबोट बनता जा रहा है… संवेदनाएं कहीं पीछे छूट रही हैं… और हम बस किसी तरह जिए जा रहे हैं..
इन ख्यालों की परिणीती मेरी कविता “सजीव निर्जीव” में हुई थी.. यही कविता लेकर हाज़िर हूं “मेरे शब्द मेरे साथ” की इस कड़ी में.. आपके लिए….
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