Hindi Poetry

इंसानियत

अखबार नहीं पढ़ती अब
पोर जलते हैं मेरे
समाचार नहीं देखती
मन हुलसता है
पर चली आती हैं गर्म हवाएं
दिल जलाती, आत्मा कचोटती
पक्ष प्रतिपक्ष निर्धारित करती इंसानियत
अपने ही पांव पर कुल्हाडा मार
दूसरों के ज़ख्म पर नमक मलती
चुप हो गई हूं, नहीं जानती मैं गलत हूं या
उनकी समझदारी की छलनी में छेद बहुत हैं….
Anupama Sarkar

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